अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण के मामले में पाकिस्तान को शक भरी निगाहों से देखा जा रहा है.
नई दिल्ली : तालिबान और पाकिस्तान के संबंधों को लेकर भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. भारत ने पूरे मामले में पाकिस्तान का नाम लेते हुए कोई सीधा बयान नहीं दिया है, लेकिन तालिबान की जीत पर पाकिस्तान के भीतर से कई तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं.
भारत में पाकिस्तान के राजदूत रहे अब्दुल बासित ने तालिबान की जीत को भारत की हार की तरह देखा.
15 अगस्त को अब्दुल बासित ने अपने एक ट्वीट में कहा था, ”अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान को अस्थिर करने वाली जगह भारत के हाथ से निकलती जा रही है. अब भारत जम्मू-कश्मीर में और अत्याचार करेगा. पाकिस्तान अब ठोस रणनीति के तहत काम करे ताकि कश्मीर विवाद को सुलझाने के लिए भारत पर राजनयिक दबाव डाला जा सके.”
पाकिस्तान के न्यूज़ चैनलों पर होने वाली बहस में भी कई नेता और टिप्पणीकार इसे भारत की हार के रूप में देख रहे हैं.
23 अगस्त को एक टीवी बहस में पाकिस्तान की सत्ताधारी तहरीक-ए-इंसाफ़ पार्टी (पीटीआई) की नेता नीलम इरशाद शेख़ ने कहा कि तालिबान ने कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए पाकिस्तान का साथ देने की घोषणा की है.
नीलम इरशाद शेख़ ने कहा, ”तालिबान हमारे साथ हैं और वे कहते हैं कि इंशाअल्लाह वे हमें कश्मीर फ़तह करके देंगे.”
पाकिस्तान के रोल पर चर्चा
नीलम की इस टिप्पणी पर न्यूज़ चैनल के होस्ट ने कटाक्ष करते हुए कहा, ”मुझे लग रहा है कि मैं भारतीय मीडिया पर बैठा हूँ और बीजेपी का कोई नुमाइंदा इस तरह का ख़ुशनुमा ख़्वाब दिखा रहा है. ये कहाँ से आपने सुना है? क्या कोई वॉट्सऐप आया था? तालिबान आपके साथ मिलकर कश्मीर आज़ाद कराएगा? वाक़ई ऐसा कोई ख़्वाब देखती हैं आप? किसने दिखाया यह ख़्वाब?”
इस पर नीलम ने कहा, ”हमारे जो टुकड़े किए हैं भारत ने, इंशाअल्लाह हम जुड़ जाएंगे. तालिबान हमारा साथ देगा.”
नीलम इरशाद शेख़ की इस टिप्पणी की आलोचना पाकिस्तान में भी ख़ूब हुई. नीलम की टिप्पणी के वीडियो क्लिप को शेयर करते हुए पाकिस्तान के सोशल एक्टिविस्ट जलिला हैदर ने लिखा है, ”पाकिस्तान की मंत्री का यह बयान उस अंतरराष्ट्रीय चिंता में आग का काम करेगा कि तालिबान के पीछे पाकिस्तान है. ये पाकिस्तान के शुभचिंतक हैं या अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन कर रहे लोगों के साथ हैं?”
टाइम मैगज़ीन में क्विंसी इंस्टीट्यूट के सीनियर फ़ेलो अनातोल लिवेन ने लिखा है कि बिना पाकिस्तान के समर्थन और शरण के तालिबान के लोग काबुल की सड़कों पर मार्च नहीं कर पाते.
अनातोल ने लिखा है, ”तालिबान को समर्थन देने की पाकिस्तान की रणनीति लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान के लिए चिंता का विषय रही है. पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और भारत की दोस्ती से आशंकित रहा है.”
”अब तालिबान की जीत से उसे लग रहा है कि भारत का डर कम होगा. भारत और तालिबान की दुश्मनी पुरानी है और भारत शायद ही तालिबान को मान्यता दे. अगर तालिबान पाकिस्तान के भीतर इस्लामिक चरमपंथियों को समर्थन देता है तो पाकिस्तान व्यापार मार्ग बंद कर सकता है़.”
इतिहास
लेकिन तालिबान और पाकिस्तान का इतिहास इतना आसान नहीं है. ब्रिटिश साम्राज्य के वक़्त से ही अफ़ग़ान-पाकिस्तान शत्रुता की कहानी 74 साल पुरानी है. अफ़ग़ानिस्तान ने डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा के तौर पर मान्यता नहीं दी है. अफ़ग़ानिस्तान पाकिस्तान से लगी सीमा और सिंधु नदी तक के कुछ इलाक़ों पर अपना दावा करता रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद की जड़ 19वीं सदी से ही है. ब्रिटिश सरकार ने भारत के उत्तरी हिस्सों पर नियंत्रण मज़बूत करने के लिए 1893 में अफ़ग़ानिस्तान के साथ 2640 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा खींची थी.
ये समझौता ब्रिटिश इंडिया के तत्कालीन विदेश सचिव सर मॉर्टिमर डूरंड और अमीर अब्दुर रहमान ख़ान के बीच काबुल में हुआ था. इसी लाइन को डूरंड लाइन कहा जाता है. यह पश्तून इलाक़े से गुज़रती है.